शनिवार, 7 अक्तूबर 2017

तुम और मैं


चलो भर लूं तुम्हें आगोश में मैं
अनुनाद उठे हृदय गतियों में
सब भाव जागें मानस पर जब, तुम
तनिक आभास कराना सासों से, सांसों में

उठी हो खामोशियों से जैसी,
वैसी कविता कोई हम हो जाएं
एहसास बचे सिर्फ तेरा-मेरा
सम्पूर्ण ब्रह्मांड चलो हम हो जाएं

समीकरणों के पार चलो हम
भावार्थ परस्पर हो जाएं
इन सौदों को न समझना पड़े
गीत और राग परस्पर हो जाएं

~ विवेक

रविवार, 8 मार्च 2015

क्यों जिंदगी भली मेरी-कुछ काश की कहानियाँ

क्यों जिंदगी भली मेरी
कुछ काश की कहानियाँ

जो न मिली, जो न जुड़ी
अनाथ सूखी क्यारियाँ ।
तात्पर्य को गुहारती
जीत-जीत भी है हारती
गोल-गोल रेखाओं पर
सीधेपन को है खोजती ।
रंगमंच की दुलरियां
यथार्थ के समक्ष खड़ी
पहचान से बरी
पर्याय को है मांगती ।
संकल्प के नए-नए
पुलों को संवारती
नित नए निर्माणों से
उदाहरणो में झांकती ।
क्यों जिंदगी भली मेरी
औरों की मनमानियां
छदम् मुक्त की मासूमियत
मेरे सपनों की दीवालियाँ ।

गुरुवार, 5 मार्च 2015

क्यों जिंदगी भली मेरी - कुछ काश की कहानियां

क्यों आवश्यक
कि जीवन रण  प्रचंड हो?
हाथों में हो मृदंग,
गुंजयमान कोलाहल प्रबल हो?

क्यों हर-बार अकेला खड़ा
युद्ध में ये अकिंचन हो?
क्यों अंतर-तम का सार बड़ा ,
छुद्र रौशनी का गरल हो?

क्यों हर निगाह का बादशाह
अपनी जेब से रंक  हो?
सबको कर रौशनी प्रदत
बुझे चिरागों का स्वामी कंक हो?

मैं नहीं कल्पित में  भी
सुख - कोष का कोई सारथि
मैं नहीं टंकार दम्भ
 में खड़ा कोई रथि
मैं आवाज हूँ
उन खामोशियों की
जो अनकही के वाणी -स्वपन  हैं
मैं सार हूँ संघर्ष की
बलिवेदियों पर अर्पित  फूल  की ।

क्यों जिंदगी भली मेरी
कुछ काश की कहानियां
जो ना मिलीं, जो ना जुडी
एकांत का अध्याय हो ।

एकाकी की वेदना
जो न कही, जो न हुई
एक समझ की मोहताज बनी
ख्यालों की परछाइयाँ
जो लिपटती रहीं
हकीकतों के चरण पड़े
और थूकते रहे सभी,
वो जो खुदा उस वक़्त के।

क्यूँ मोहब्बत की रूसवाइयां
यूँ विषधर के स्वरूप में
प्यार के मुखौटों संग
जिंदगी प्रदान कर,
मौत सींचती  रहीं।

गिरी गिरी पर जो बूँद
नदी स्वरूप धर  लिया
ये मुझको बहा तो ले गयी
अपनी अटल उस धार में ।

तैरना सीखा नहीं,
डूबने के मिजाज में
डूबने की जिद जो थी
तो डूबने दिया नहीं ।

धरातल की आग ने
लौटने दिया नहीं
अंत है, न थाह है
ये दरिया क्यों अथाह है ।

एक एकाकी पेड़ को
काटना सही भला
प्राण जो न दे पायेगा
प्राण उसमे रख क्या भला?

तो तुम पूछते हो संकोचवश
या द्वेषवश या रागवश 
कहो  तुम्हारे संगीत में
कर्कशता के कुछ कोहराम करूँ ?
मुझे छू जाने की जिद जो है
कहो तो जिस्म दाह करूँ?

तो टूटती रहे भला
प्यार की सुराहियां
मैं सच्चा आशिक़ उस मय
जिसमें प्याले की रुबाइयाँ ।


मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

अकेलापन

क्या होता है अकेलापन?
अकेलापन होता है चेहरे पर वो अदृश्य खिंचाव
जो नहीं पहुँचने देता मुस्कान को लबों से आँखों तक.
अकेलापन नहीं है रास्ते पर अकेले साइकिल चलाना ,
अकेलापन उस मंत्रमुग्धता का खो जाना है,
जो आँखों को फैलने पर मजबूर कर देती थी
और खुद ही ब्रेक लग जाते थे साइकिल पर,
मजबूरी हो जाती थी पुल का, दरिया का, शहर का नजारा कैद करने की
और वो जो ख़ुशी होती थी फ़ोन पर बताते हुए भव्यता के किस्से.
अकेलापन इसी रस्ते पर इन नयनों की सिकुड़न है
जब दग्ध है सुंदरता के रस की नीरसता से!

अकेलापन नहीं है तुमसे दूरी महसूस करना,
ना ही मैं इसको समझता हूँ तुमसे लगे रहना फ़ोन पर घंटों,
अकेलापन उस विवशता का एहसास है जो हो आती है
इस समझ पर की कंप्यूटर की स्क्रीन चाहे कितनी पतली हो
इसको तोड़कर तुम्हे छू नहीं सकते,
अकेलापन नयी समझ है इस पुराने ज्ञान का ।

अकेलापन नहीं है छोटे से कमरे में बंद रह जाना,
अकेलापन इस बात पर गौर करना है की हर रात ११ बजे जो
बत्तखें बोलती थी खिड़की के पीछे वाले कैनाल में,
वो आज चुप हैं !

अकेलापन नहीं है भीड़ से दूर हो जाना
अकेलापन है कुछ लोगों से जुदा  हो जाना ।
अकेलापन तब और भारी हो जाता है,
जब रास्ते में कुछ पुरानी बातें सोचते हुए साइकिल चलाता रहता हूँ
और भान हो आता है की आज भी सब कुछ वैसा ही है जैसा पहले महीने था ,
लेकिन फिर भी पेडल मारना भारी हो लगता है,
तब समझ आता है की पीछे कैरियर पर, अकेलापन साथ चल रहा है।

अकेलापन नहीं है बोर हो कर नयी जगहों को
गूगल मैप्स पर ढूँढना, प्लान बनाना,
अकेलापन लोकेशन-हिस्ट्री से उन दिनों को देखना
जब तुम साथ थी!
तुम्हारे जन्मदिन का दिन देखना और वो रेस्टोरेंट
को याद करना ।
और याद करना मुंबई की बारिश में
वो जो थोड़ा समय साथ बिताया था भीगते हुए ।

अकेलापन नहीं था लक्ष्मण का धर्माथ वन चले जाना,
अकेलापन वो था जो उर्मिला ने काटा था,
महल की महफ़िलों में क्रन्दित अवसादित अवस्था में
एक रानी का मुखौटा ओढ़े हुए ।

अकेलापन एक बोरिंग सी मीटिंग में अनमने से घूमते नज़र की
दास्तान नहीं हो सकती है,
अकेलापन संज्ञान है की अनायास ही जो उँगलियाँ थिरक रही हैं
बंद कॉपी के कवर पर, वो तुम्हारा नाम लिख रही हैं ।
अकेलापन समझ आता है बड़े भरपूर तरीके से तब,
जब उसी कॉपी को उल्टा पलटा के देखने पर,
किसी बल्ब के प्रतिबिम्ब से ये भान हो आता है की
बंद कलम से भी तुम्हारा ही नाम लिखा था,
नाख़ून से जो उकेरा था कोई जटिल प्रश्न पर चिंतन में,
तो तुम्हारा नाम ही उकेर पाया था।
अकेलापन तब समझ आ जाता है,
जब किसी से बात करते हुए,
कॉफ़ी-कार्नर में , जब पानी गर्म हो रहा होता है चाय के लिए,
और एक नन्ही सी बूँद गुस्ताखी कर गयी होती है बाहर गिर जाने की,
और मैं खुद को पाता  हूँ, उस बूँद को फैला कर,
तुम्हारे नाम का पहले अक्षर लिखते हुए ,
दूरी का दर्द अनायास की आँखों में उतर  जाता है,
और चाय में एक्स्ट्रा शुगर डालने का बहाना सा हो जाता है । 

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

क्या लिखूं

दिल में आया प्रेम-पत्र लिख बैठें उनको और फिर …


मैं सोचता हूँ क्या लिखूं?
दिल के अपने अरमान लिखूं,
मोहब्बत की दो बात लिखूं 
या अपनी प्रेम-हाला के कुछ जाम लिखूं!

इस सीमित से कागज के टुकड़े पर 
कैसे मैं प्रेम-पुराण लिखूं?
मोहब्बत के गहरे सागर की 
कैसे बस बूँद प्रमाण लिखूं!

सोचता हूँ तेरे बारे में लिखूं,
पर, रूप लिखूं या दिल लिखूं?
भोलेपन की किताब लिखूं,
या मृगनयनों की बात लिखूं?

चलो अपनी ही कुछ कह जाता हुँ. 
पर, रूह की तलाश लिखूं,
जुदाई में नयनों का प्रलाप लिखूं?
साँसों में निहित तेरी प्यारी आवाज लिखूं ,
या बंद आँखों में मुस्कुराते 
तेरे होठों का आकार लिखूं?

सोचता हूँ यहां मौसम का हाल लिखूं,
सर्द अकेले कम्बल की दास्तान  लिखूं,
मेरे हाथों में तेरे हाथों के एहसास लिखूं,
और लकीरों के दोराहे का एकाकार हुआ अंजाम लिखूं!

इस सीमित से कागज के टुकड़े पर,
कैसे खामोश रातों की आवाज लिखूं?
दूरी दिल में तीर सी चुभती है,
तेरी ओर रूह की मैं परवाज लिखूं!

इस सीमित से कागज़ के टुकड़े पर 
कैसे मैं प्रीत-पुराण लिखूं,
कैसे दिल की आवाज लिखूं,
ऐे मेरे खुद बस इतना बता,
कैसे मेरी तेरी इबादत बयान  लिखूं?

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

अक्षर-प्रेम

तुम इश्क़ की गहराईयों का माप क्यों पूछते हो मुझसे 
मुझे खबर नहीं अब धरातल की स्थिति क्या है । 
मैं डूब गया हूँ और ऐसे कुछ ठहर गया हूँ वक़्त में 
सपनों और हक़ीक़त में रहा अब फर्क कहाँ  है। 

खुदा से मांगूं अब क्या, जो तेरा साथ लिखा लकीरों में,
मुझको नहीं फ़िकर , क्या आएगा हमारी तकदीरों में । 
मोहब्बत  में नशा भी खूब है, और है खूब  साथ होश का भी 
तू है साहिल मेरा, मेरी कश्ती भी, किनारा भी। 

साँसों का संगीत मुझको अब समझ आता है थोड़ा थोड़ा,
धड़कनों की साज तुम, साकी तुम ही मेरी, तुम ही हो हाला!
मैं तुम में ढलना  चाहूँ जैसे सूर्य उतरे क्षितिज में  सायं -वेला  
बस जाओ तुम मुझमें ऐसे, रोशन  होती शब जैसे पहन प्रकाश का चोला ।  

आलोकित  हो तुझसे मैं जीवन के नए आयाम तरूँगा 
मेरे ठहराव में मैं, प्रेम लहरों का सृजन करूँगा । 
तेरा हूँ, तेरा हूँ और तेरा ही हूँ मैं अनंत की सीमाओं तक 
तुझमे रहूंगा, तेरा घर बनूंगा, मोहब्बत-इबादत दिन-रात करूंगा!

बुधवार, 11 सितंबर 2013

हे ईश्वर !

हे ईश्वर ,  विरोधाभासापूर्ण भी क्या तेरे मिजाज हैं,
जिनको तूने रचा है, वो ही तुझको गढ़ते जाते है !
प्रकृति के बनाये यूँ तो नियम तुमने कई ,
तुम्हारे-सृजित ये सीमा-रेखाओं के खुनी चित्र उकेरते जाते हैं । 

तभी मैं आवश्यक प्रश्न भी तुझसे करता हूँ,
मैं तुझसे सृजित या, दर्शन-चिंतन से सृजन तेरा मैं करता हूँ !
विशृंखलता से क्रम का अवरोहन जो तू करवाता है ,
अभिभूत मेरा मन, पहेलियों में बंटता चला जाता है । 

स्वरचित गुम्फित गुत्थियाँ गले मैं लगाता ,
जब भी तेरे अस्तित्व पर कोई प्रशनचिन्ह मैं लगाता  । 
स्वरूप अनंत है तुम्हारा,
पर सूक्ष्म में भी निहित मैं तुझे ही पाता !

महत्वकान्छओं के शहर में जब भी ,
सपनों के लहू से मन को नहाया पाता ,
तेरे ही शरण छिपा मैं खुद को, 
जीवन की हर धुप भुलाता ।