रविवार, 8 मार्च 2015

क्यों जिंदगी भली मेरी-कुछ काश की कहानियाँ

क्यों जिंदगी भली मेरी
कुछ काश की कहानियाँ

जो न मिली, जो न जुड़ी
अनाथ सूखी क्यारियाँ ।
तात्पर्य को गुहारती
जीत-जीत भी है हारती
गोल-गोल रेखाओं पर
सीधेपन को है खोजती ।
रंगमंच की दुलरियां
यथार्थ के समक्ष खड़ी
पहचान से बरी
पर्याय को है मांगती ।
संकल्प के नए-नए
पुलों को संवारती
नित नए निर्माणों से
उदाहरणो में झांकती ।
क्यों जिंदगी भली मेरी
औरों की मनमानियां
छदम् मुक्त की मासूमियत
मेरे सपनों की दीवालियाँ ।

गुरुवार, 5 मार्च 2015

क्यों जिंदगी भली मेरी - कुछ काश की कहानियां

क्यों आवश्यक
कि जीवन रण  प्रचंड हो?
हाथों में हो मृदंग,
गुंजयमान कोलाहल प्रबल हो?

क्यों हर-बार अकेला खड़ा
युद्ध में ये अकिंचन हो?
क्यों अंतर-तम का सार बड़ा ,
छुद्र रौशनी का गरल हो?

क्यों हर निगाह का बादशाह
अपनी जेब से रंक  हो?
सबको कर रौशनी प्रदत
बुझे चिरागों का स्वामी कंक हो?

मैं नहीं कल्पित में  भी
सुख - कोष का कोई सारथि
मैं नहीं टंकार दम्भ
 में खड़ा कोई रथि
मैं आवाज हूँ
उन खामोशियों की
जो अनकही के वाणी -स्वपन  हैं
मैं सार हूँ संघर्ष की
बलिवेदियों पर अर्पित  फूल  की ।

क्यों जिंदगी भली मेरी
कुछ काश की कहानियां
जो ना मिलीं, जो ना जुडी
एकांत का अध्याय हो ।

एकाकी की वेदना
जो न कही, जो न हुई
एक समझ की मोहताज बनी
ख्यालों की परछाइयाँ
जो लिपटती रहीं
हकीकतों के चरण पड़े
और थूकते रहे सभी,
वो जो खुदा उस वक़्त के।

क्यूँ मोहब्बत की रूसवाइयां
यूँ विषधर के स्वरूप में
प्यार के मुखौटों संग
जिंदगी प्रदान कर,
मौत सींचती  रहीं।

गिरी गिरी पर जो बूँद
नदी स्वरूप धर  लिया
ये मुझको बहा तो ले गयी
अपनी अटल उस धार में ।

तैरना सीखा नहीं,
डूबने के मिजाज में
डूबने की जिद जो थी
तो डूबने दिया नहीं ।

धरातल की आग ने
लौटने दिया नहीं
अंत है, न थाह है
ये दरिया क्यों अथाह है ।

एक एकाकी पेड़ को
काटना सही भला
प्राण जो न दे पायेगा
प्राण उसमे रख क्या भला?

तो तुम पूछते हो संकोचवश
या द्वेषवश या रागवश 
कहो  तुम्हारे संगीत में
कर्कशता के कुछ कोहराम करूँ ?
मुझे छू जाने की जिद जो है
कहो तो जिस्म दाह करूँ?

तो टूटती रहे भला
प्यार की सुराहियां
मैं सच्चा आशिक़ उस मय
जिसमें प्याले की रुबाइयाँ ।


मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

अकेलापन

क्या होता है अकेलापन?
अकेलापन होता है चेहरे पर वो अदृश्य खिंचाव
जो नहीं पहुँचने देता मुस्कान को लबों से आँखों तक.
अकेलापन नहीं है रास्ते पर अकेले साइकिल चलाना ,
अकेलापन उस मंत्रमुग्धता का खो जाना है,
जो आँखों को फैलने पर मजबूर कर देती थी
और खुद ही ब्रेक लग जाते थे साइकिल पर,
मजबूरी हो जाती थी पुल का, दरिया का, शहर का नजारा कैद करने की
और वो जो ख़ुशी होती थी फ़ोन पर बताते हुए भव्यता के किस्से.
अकेलापन इसी रस्ते पर इन नयनों की सिकुड़न है
जब दग्ध है सुंदरता के रस की नीरसता से!

अकेलापन नहीं है तुमसे दूरी महसूस करना,
ना ही मैं इसको समझता हूँ तुमसे लगे रहना फ़ोन पर घंटों,
अकेलापन उस विवशता का एहसास है जो हो आती है
इस समझ पर की कंप्यूटर की स्क्रीन चाहे कितनी पतली हो
इसको तोड़कर तुम्हे छू नहीं सकते,
अकेलापन नयी समझ है इस पुराने ज्ञान का ।

अकेलापन नहीं है छोटे से कमरे में बंद रह जाना,
अकेलापन इस बात पर गौर करना है की हर रात ११ बजे जो
बत्तखें बोलती थी खिड़की के पीछे वाले कैनाल में,
वो आज चुप हैं !

अकेलापन नहीं है भीड़ से दूर हो जाना
अकेलापन है कुछ लोगों से जुदा  हो जाना ।
अकेलापन तब और भारी हो जाता है,
जब रास्ते में कुछ पुरानी बातें सोचते हुए साइकिल चलाता रहता हूँ
और भान हो आता है की आज भी सब कुछ वैसा ही है जैसा पहले महीने था ,
लेकिन फिर भी पेडल मारना भारी हो लगता है,
तब समझ आता है की पीछे कैरियर पर, अकेलापन साथ चल रहा है।

अकेलापन नहीं है बोर हो कर नयी जगहों को
गूगल मैप्स पर ढूँढना, प्लान बनाना,
अकेलापन लोकेशन-हिस्ट्री से उन दिनों को देखना
जब तुम साथ थी!
तुम्हारे जन्मदिन का दिन देखना और वो रेस्टोरेंट
को याद करना ।
और याद करना मुंबई की बारिश में
वो जो थोड़ा समय साथ बिताया था भीगते हुए ।

अकेलापन नहीं था लक्ष्मण का धर्माथ वन चले जाना,
अकेलापन वो था जो उर्मिला ने काटा था,
महल की महफ़िलों में क्रन्दित अवसादित अवस्था में
एक रानी का मुखौटा ओढ़े हुए ।

अकेलापन एक बोरिंग सी मीटिंग में अनमने से घूमते नज़र की
दास्तान नहीं हो सकती है,
अकेलापन संज्ञान है की अनायास ही जो उँगलियाँ थिरक रही हैं
बंद कॉपी के कवर पर, वो तुम्हारा नाम लिख रही हैं ।
अकेलापन समझ आता है बड़े भरपूर तरीके से तब,
जब उसी कॉपी को उल्टा पलटा के देखने पर,
किसी बल्ब के प्रतिबिम्ब से ये भान हो आता है की
बंद कलम से भी तुम्हारा ही नाम लिखा था,
नाख़ून से जो उकेरा था कोई जटिल प्रश्न पर चिंतन में,
तो तुम्हारा नाम ही उकेर पाया था।
अकेलापन तब समझ आ जाता है,
जब किसी से बात करते हुए,
कॉफ़ी-कार्नर में , जब पानी गर्म हो रहा होता है चाय के लिए,
और एक नन्ही सी बूँद गुस्ताखी कर गयी होती है बाहर गिर जाने की,
और मैं खुद को पाता  हूँ, उस बूँद को फैला कर,
तुम्हारे नाम का पहले अक्षर लिखते हुए ,
दूरी का दर्द अनायास की आँखों में उतर  जाता है,
और चाय में एक्स्ट्रा शुगर डालने का बहाना सा हो जाता है ।