रविवार, 1 जुलाई 2012

खुदा क्या तू जिन्दा है?

बंटी टुकड़ों में रूह है मेरी
क्या ये प्रायिकताओं  का खेल है!
शायद साथ नहीं हैं लकीरें हाथों की
बदलूं क्या, खंजर का मालिक भी कोई और है ।

अश्क भी रूठ गए हमसे तो क्या
तेरी वफ़ा के जमाने का अभी शोर है!
जाने कब छिन जाएगी मेरी दुनिया मुझसे
इस भंवर का दीखता न अब कोई छोर है ।

जल पाऊं भी तो कैसे हाला की बूंदों से
मोहब्बत में जलने का मजा भी तो कुछ और है!
जिंदगी की दहलीज से अब लौटते से ये कदम
सुना जन्नत में ख़ुदा की मय्यत का शोर है।

मिला पायेगा क्या तू हमको
तेरे जमाने पर चला तेरा भी क्या जोर है!
अंधियारों में ढूंढते रहेंगे शायद उसे
परछाईयों की वफ़ा के इम्तेहान का दौर है।