रविवार, 1 जुलाई 2012

खुदा क्या तू जिन्दा है?

बंटी टुकड़ों में रूह है मेरी
क्या ये प्रायिकताओं  का खेल है!
शायद साथ नहीं हैं लकीरें हाथों की
बदलूं क्या, खंजर का मालिक भी कोई और है ।

अश्क भी रूठ गए हमसे तो क्या
तेरी वफ़ा के जमाने का अभी शोर है!
जाने कब छिन जाएगी मेरी दुनिया मुझसे
इस भंवर का दीखता न अब कोई छोर है ।

जल पाऊं भी तो कैसे हाला की बूंदों से
मोहब्बत में जलने का मजा भी तो कुछ और है!
जिंदगी की दहलीज से अब लौटते से ये कदम
सुना जन्नत में ख़ुदा की मय्यत का शोर है।

मिला पायेगा क्या तू हमको
तेरे जमाने पर चला तेरा भी क्या जोर है!
अंधियारों में ढूंढते रहेंगे शायद उसे
परछाईयों की वफ़ा के इम्तेहान का दौर है। 

शनिवार, 16 जून 2012

परिभाषा मेरे अस्तित्व की

                                 परिभाषा मेरे अस्तित्व की 
आ जाओ न यादों से निकल फिर , कि बीती  शब के धागे फिर महफ़िल बुनें ।
तुम्हारा ख्याल महज तरसते अरमानों की दास्ताँ नहीं , आँखों की निरपेक्ष हकीक़त चूमे ।
कि काल का दरिया अनवरत बहता तो है, पर आओ न अपनी यादों की तरह,
जिनमें डूब, मैं जी लेता एक ब्रह्माण्ड की उम्र, और वक़्त का सौदागर , ठगा सा,
मुंह  ले रह जाता है, क़ि नुक्सान हो गया उसे व्यापार में,
बिना कोई वक़्त खरीदे, मैं इतने ख्वाब जो जी आया इस जहान में।
चली आओ तुम इस बार इस गुलशन में , तुम्हें संग देख अपने ,
प्रायिकता की दुनियाओं को सारी समेट लूँ, और रच पाऊं
अपनी दुनिया तुम्हारे साथ और नितांत काल को विलीन हो जाऊं तुझमें ।।
द्रष्टा और स्रष्टा में  भला कोई भेद भी होता है?
 जब परिभाषित ही हूँ तुझसे तो , पृथक अस्तित्व ही नहीं वास्तव,छलावा है जेहन का;
भौतिकी के नियम नहीं बतलाते दो कृष्ण-छिद्र आपस में क्या खेल खेलते होंगें।।