बुधवार, 11 सितंबर 2013

हे ईश्वर !

हे ईश्वर ,  विरोधाभासापूर्ण भी क्या तेरे मिजाज हैं,
जिनको तूने रचा है, वो ही तुझको गढ़ते जाते है !
प्रकृति के बनाये यूँ तो नियम तुमने कई ,
तुम्हारे-सृजित ये सीमा-रेखाओं के खुनी चित्र उकेरते जाते हैं । 

तभी मैं आवश्यक प्रश्न भी तुझसे करता हूँ,
मैं तुझसे सृजित या, दर्शन-चिंतन से सृजन तेरा मैं करता हूँ !
विशृंखलता से क्रम का अवरोहन जो तू करवाता है ,
अभिभूत मेरा मन, पहेलियों में बंटता चला जाता है । 

स्वरचित गुम्फित गुत्थियाँ गले मैं लगाता ,
जब भी तेरे अस्तित्व पर कोई प्रशनचिन्ह मैं लगाता  । 
स्वरूप अनंत है तुम्हारा,
पर सूक्ष्म में भी निहित मैं तुझे ही पाता !

महत्वकान्छओं के शहर में जब भी ,
सपनों के लहू से मन को नहाया पाता ,
तेरे ही शरण छिपा मैं खुद को, 
जीवन की हर धुप भुलाता । 


मेरी घड़ी की रुकी हुई सुई

बीते कल में मुड़कर देखना
यूँ तो  अच्छा नहीं लगता सोचने में, 
पर बेशर्म आदत का जोर ही कुछ ऐसा है ,
यादें घुमड़-घुमड़ जेहन में तूफ़ान खेलती हैं !

कसक सी है मन में, काश वक़्त की पूंछ पकड़ 
रोक ही लिया होता उस पल को,
बस एक चित्र बन कर रह जाता हमारा साथ,
परस्पर आगोशित रूहों का समाहार !

खैर, हर एक "काश" में एक अद्वितीय ब्रह्माण्ड ही छिपा होता है !
यूँ सामानांतर प्रायिकताओं का नाच-नाच मन में एकाकार हो जाना,
आभासित ही तो है वक्त के साथ साथ चलते जाना!
टंगे कपड़े की तरह फड़फड़ाना, और दौड़ना, दो पृथक वास्तविकताएं हैं । 

दिल की तस्वीर से तुम्हें निकाल फिर एक दिन
हम प्रकृति के नए नियम रचेंगे,
गतिज दुनिया के केंद्र में रुके हुए हम,
ऐसे ही तो हम नए-नए ब्रह्माण्ड रचेंगे !