हे ईश्वर , विरोधाभासापूर्ण भी क्या तेरे मिजाज हैं,
जिनको तूने रचा है, वो ही तुझको गढ़ते जाते है !
प्रकृति के बनाये यूँ तो नियम तुमने कई ,
तुम्हारे-सृजित ये सीमा-रेखाओं के खुनी चित्र उकेरते जाते हैं ।
तभी मैं आवश्यक प्रश्न भी तुझसे करता हूँ,
मैं तुझसे सृजित या, दर्शन-चिंतन से सृजन तेरा मैं करता हूँ !
विशृंखलता से क्रम का अवरोहन जो तू करवाता है ,
अभिभूत मेरा मन, पहेलियों में बंटता चला जाता है ।
स्वरचित गुम्फित गुत्थियाँ गले मैं लगाता ,
जब भी तेरे अस्तित्व पर कोई प्रशनचिन्ह मैं लगाता ।
स्वरूप अनंत है तुम्हारा,
पर सूक्ष्म में भी निहित मैं तुझे ही पाता !
महत्वकान्छओं के शहर में जब भी ,
सपनों के लहू से मन को नहाया पाता ,
तेरे ही शरण छिपा मैं खुद को,
जीवन की हर धुप भुलाता ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें