बुधवार, 11 सितंबर 2013

हे ईश्वर !

हे ईश्वर ,  विरोधाभासापूर्ण भी क्या तेरे मिजाज हैं,
जिनको तूने रचा है, वो ही तुझको गढ़ते जाते है !
प्रकृति के बनाये यूँ तो नियम तुमने कई ,
तुम्हारे-सृजित ये सीमा-रेखाओं के खुनी चित्र उकेरते जाते हैं । 

तभी मैं आवश्यक प्रश्न भी तुझसे करता हूँ,
मैं तुझसे सृजित या, दर्शन-चिंतन से सृजन तेरा मैं करता हूँ !
विशृंखलता से क्रम का अवरोहन जो तू करवाता है ,
अभिभूत मेरा मन, पहेलियों में बंटता चला जाता है । 

स्वरचित गुम्फित गुत्थियाँ गले मैं लगाता ,
जब भी तेरे अस्तित्व पर कोई प्रशनचिन्ह मैं लगाता  । 
स्वरूप अनंत है तुम्हारा,
पर सूक्ष्म में भी निहित मैं तुझे ही पाता !

महत्वकान्छओं के शहर में जब भी ,
सपनों के लहू से मन को नहाया पाता ,
तेरे ही शरण छिपा मैं खुद को, 
जीवन की हर धुप भुलाता । 


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