गुरुवार, 5 मार्च 2015

क्यों जिंदगी भली मेरी - कुछ काश की कहानियां

क्यों आवश्यक
कि जीवन रण  प्रचंड हो?
हाथों में हो मृदंग,
गुंजयमान कोलाहल प्रबल हो?

क्यों हर-बार अकेला खड़ा
युद्ध में ये अकिंचन हो?
क्यों अंतर-तम का सार बड़ा ,
छुद्र रौशनी का गरल हो?

क्यों हर निगाह का बादशाह
अपनी जेब से रंक  हो?
सबको कर रौशनी प्रदत
बुझे चिरागों का स्वामी कंक हो?

मैं नहीं कल्पित में  भी
सुख - कोष का कोई सारथि
मैं नहीं टंकार दम्भ
 में खड़ा कोई रथि
मैं आवाज हूँ
उन खामोशियों की
जो अनकही के वाणी -स्वपन  हैं
मैं सार हूँ संघर्ष की
बलिवेदियों पर अर्पित  फूल  की ।

क्यों जिंदगी भली मेरी
कुछ काश की कहानियां
जो ना मिलीं, जो ना जुडी
एकांत का अध्याय हो ।

एकाकी की वेदना
जो न कही, जो न हुई
एक समझ की मोहताज बनी
ख्यालों की परछाइयाँ
जो लिपटती रहीं
हकीकतों के चरण पड़े
और थूकते रहे सभी,
वो जो खुदा उस वक़्त के।

क्यूँ मोहब्बत की रूसवाइयां
यूँ विषधर के स्वरूप में
प्यार के मुखौटों संग
जिंदगी प्रदान कर,
मौत सींचती  रहीं।

गिरी गिरी पर जो बूँद
नदी स्वरूप धर  लिया
ये मुझको बहा तो ले गयी
अपनी अटल उस धार में ।

तैरना सीखा नहीं,
डूबने के मिजाज में
डूबने की जिद जो थी
तो डूबने दिया नहीं ।

धरातल की आग ने
लौटने दिया नहीं
अंत है, न थाह है
ये दरिया क्यों अथाह है ।

एक एकाकी पेड़ को
काटना सही भला
प्राण जो न दे पायेगा
प्राण उसमे रख क्या भला?

तो तुम पूछते हो संकोचवश
या द्वेषवश या रागवश 
कहो  तुम्हारे संगीत में
कर्कशता के कुछ कोहराम करूँ ?
मुझे छू जाने की जिद जो है
कहो तो जिस्म दाह करूँ?

तो टूटती रहे भला
प्यार की सुराहियां
मैं सच्चा आशिक़ उस मय
जिसमें प्याले की रुबाइयाँ ।


कोई टिप्पणी नहीं: